गुरूदेव कौ अंग
निर्गुण सन्तों की परम्परा में गुरु को अत्यन्त महत्त्व दिया गया है। इस अंग में कबीर ने भी गुरु की महत्ता का वर्णन किया है। उन्होंने बताया है कि इस संसार में गुरु के समान कोई हितैषी और अपना सगा नहीं है, इसलिए मैं अपना तन-मन और सर्वस्व गुरु के प्रति समर्पण करता हूँ जो क्षणभर में ही अपनी कृपा से मनुष्य को देवता बनाने में समर्थ हैं।
गुरु की महिमा अनंत है और इसे वही समझ सकता है जिसके ज्ञान-चक्षु खुल गये हों। गुरु की कृपा जिस व्यक्ति पर होती है, कलयुग का प्रभाव भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता, अर्थात् उस पर पापों और दुष्कर्मों का कोई प्रभाव नहीं हो सकता । गुरु ही अपने शिष्य के अन्तर की ज्योति को प्रज्ज्वलित करने में समर्थ है, वही सच्चा शूरवीर है, गुरु का उपदेश कानों में पड़ते ही शिष्य समस्त प्रकार के सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
ऐसा गुरु भगवान की कृपा से ही प्राप्त होता है, किन्तु दुर्भाग्यवश जिस व्यक्ति को विद्वान् गुरु प्राप्त नहीं होता, उस शिष्य की कभी मुक्ति नहीं हो सकती, बल्कि वह तो अपने साथ अपने शिष्य को भी लेकर डूब जाता है।
गुरु की वाणी ही उस संशय को नष्ट करने में समर्थ है, जो समस्त संसार को अपने कठोर पाश में आबद्ध किये हुए है, किन्तु केवल गुरु का मिलना ही मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है, बल्कि शिष्य के शुद्ध अन्तःकरण की भी उतनी ही आवश्यकता है, क्योंकि यदि शिष्य के हृदय में किसी प्रकार का विकार है, तो गुरु की कृपा से उसे कोई विशेष लाभ नहीं होगा।
अपनी इसी महत्ता के कारण गुरु का स्थान भगवान के स्थान के समान है, अर्थात् गुरु और गोविन्द दोनों एक ही हैं। जिन लोगों को गुरु की प्राप्ति नहीं होती, वे चाहे जितना तप और साधना करें, किन्तु उनका कोई फल नहीं होता।
सर्व प्रकार से समर्थ गुरु से ही परिचय हो जाने पर समस्त सांसारिक और मानसिक दुःख नष्ट हो जाते हैं और आत्मा निर्मल होकर प्रभु-भक्ति में तल्लीन हो जाती है। अतः गुरु की महिमा अनंत और अवर्णनीय है।
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सतगुर सर्वोन को सगा, सोधि सई न दाति ।
हरिजी सर्वांन को हितू हरिजन सई न जाति || 1 ||
शब्दार्थ- सर्वोन समान, सोची-तत्त्वशोधक (साधु), सई-समान, दाति-दाता, हरिजन-प्रभु भक्त
व्याख्या:- (इस संसार में) सदगुरु के समान अपना कोई निकट सम्बन्धी नहीं है। तत्त्वशोधक या प्रभु की खोज करने वाले साधु के समान कोई दाता नहीं, वह अपना समस्त ज्ञान शिष्य में उडेल देता है। दयालु प्रभु तुल्य अपना कोई हितैषी नहीं है और प्रभु भक्तों के समान कोई जाति नहीं है। अर्थात् प्रभु भक्त सब मनुष्यों में श्रेष्ठ है।
विशेष:- (1) अनन्ययोपमा, अनुप्रास एवं यमक अंलकार (2) सद्गुरु, ईश्वर एवं प्रभुभक्त का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है।
बलिहारी गुरु आपणे, द्यौं हाड़ी के बार |
जानि मनुष्य तैं देवता, करत न लागी बार ।। 2 ।।
शब्दार्थ: आपणे-अपने, हाडी-शरीर (अस्थिचर्म मय)
व्याख्या: मै शरीर को अपने गुरु के ऊपर न्यौछावर करता हूँ मैं उन पर बलि बलि जाता हूँ, जिन्होंने अत्यन्त अल्प समय में मुझे मनुष्य से देवता बना दिया अर्थात् मेरी मानवीय दुर्बलताओं को नष्ट कर मुझे दिव्य गुण युक्त कर दिया।
विशेष: (1) बार में यमक अलंकार (2) गुरु ब्रह्मा से बढ़कर है, क्योंकि वह क्षणमात्र में मनुष्य को देवता बनाता है, यह ध्यनि व्यतिरेक अलंकार के रूप में है।
सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार ।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार ।। 3 ।।
शब्दार्थ- अनंत-जिसका अंत नहीं, लोचन ज्ञान- चक्षु, प्रज्ञा चक्षु, अनंत-ब्रह्म
व्याख्या:- सद्गुरु की महिमा अपरम्पार है, उन्होने मेरे साथ महान उपकार किया है। उन्होंने मेरे चर्मचक्षुओं के स्थान पर ज्ञान चक्षु खोल दिये, दिव्य-दृष्टि प्रदान कर दी, जिसके द्वारा उस अनन्त ब्रह्म के दर्शन हो गये। विशेष:- (1) यमक अलंकार।
राम नाम ले पटतर, देबे को कुछ रही नाहि
क्या ले गुर संतोषिए हौस मन मांहि || 4 ||
शब्दार्थ- पटतरे-बदले में, सतोषिए-सतुष्ट करूँ, हौस-प्रबल अभिलाषा
व्याख्या- गुरु ने राम-नाम का जो अमूल्य मंत्र दिया है उसके बदले में देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है क्योंकि उस राम-नाम के सम्मुख समस्त वस्तुएँ तुच्छ और हेय है. फिर भला मैं क्या देकर गुरूदेव को सन्तुष्ट करूँ यही प्रबल अभिलाषा मेरे मन में आकर रह जाती है।
विशेष (1) उपमान न मिलने से उपमानलुप्ता उपमा
सतगुर के सदकै करूँ, दिल अपणी का साछ ।
कलियुग हम स्यूं लडि पढ्या मुहकम मेरा बाछ || 5||
शब्दार्थ: साछ- साक्षी, बाछ-रक्षक।
व्याख्या: में सद्गुरु पर प्राणपण से न्यौछावर एवं अपने हृदय को साक्षी करके कहता हूँ कि कलिकाल अर्थात् विविध मायामोह के प्रपंच मुझसे जूझ रहे हैं, पापों का और मन का संघर्ष चल रहा है, किन्तु शक्तिसम्पन्न गुरुवर सकते। मेरे रक्षक है, अतः पाप-पुँज मुझे परास्त नहीं कर
विशेष:- (1) मानवीकरण अलंकार (2) गुरु का महत्त्व प्रदर्शित किया गया है।
सतगुरु लई कमाण करि बौहण लागा तीर ।
एक जु बाह्या प्रीति सूं भीतरि रह्या सरीर || 6 ||
शब्दार्थ- कमण-धनुष । बहिण लागा – बरसाने लगा।
व्याख्या:- सद्गुरु ने हाथ में धनुष धारण कर लिया एवं तीरों की वर्षा करने लगे अर्थात् अध्यवसायपूर्वक प्रयत्न से शिष्य को उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया। इन उपदेशों (वाणी) में एक बाण इस प्रकार प्रेमपूर्वक चलाया गया जिसने अन्तर को बेधकर हृदय में घर कर लिया। हृदय तक बाण को पहुँचने के लिए मध्य के समस्त अन्धावरण बेधने पड़े हैं, इसीलिए वह हृदय में जाकर रह गया है। यह बाण था प्रेम का
विशेष:- (1) रूपकातिशयोक्ति (केवल उपमान पक्ष धनुष-बाण का उल्लेख होने से) (2) भक्ति रस. ( 3 ) गुरु का महत्त्व ।
सतगुर सांचा सूरियों, सवद जु बाह्या एक ।
लागत ही मैं मिल गया, पड्या कलेजे छेक || 7 ||
शब्दार्थ:- सूरियाँ- सूरमा, वीर , बाह्या-मारा। में- अहंकार, आत्मज्ञान ।
व्याख्या – सद्गुरु सच्चे शूरवीर है जिस प्रकार रणभूमि में सूर अपने विरोधी पक्ष को बाणवर्षा से परास्त कर देता है, उसी प्रकार उस सद्गुरु रूपी शूर ने ‘शब्द’ (उपदेश) का बाण चलाया। उनके लगते ही मेरा मैं अर्थात् अहं नष्ट हो गया अथवा उसके लगते ही मेरा आत्मज्ञान से साक्षात्कार हो गया। उस बाण के लगते ही हृदय में प्रेम की टेक का छिद्र हो गया। तात्पर्य यह है कि यह प्रेम उस सद्गुरु के उपदेश रूपी बाण का ही परिणाम है।
विशेष :- सागरूपक अलंकार।
सतगुर मार्या बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि ।
अंगि उघाड़े लागिया, गई दवा सूँ फूटि ।। 8 ॥
शब्दार्थ: मार्या – मारा। भरि-पूर्ण शक्ति से भरकर । दवा-दावाग्नि ।
व्याख्या: सद्गुरु ने साधक के ऊपर यह उपदेश- बाण पूर्ण शक्ति से खींचकर एवं मूठ को लक्ष्योन्मुख करके सीधा कर के मारा जिससे दावाग्नि-सी फूट पड़ी। समस्त वासना, माया आदि जल-जल कर क्षार होने लगे एवं साधक शरीर के वस्त्र, (माया आदि आवरण) उतार कर फेंकने लगा अर्थात् उसका वस्तुस्थिति से साक्षात्कार हो गया।
विशेष:- (1) उपमा एवं सांगरूपक अलंकार । (2) गुरु का महत्त्व |
हँसे न बोलै उनमनी, चंचल मेल्ह्या मारि।
कहे कबीर भीतरि मिद्या, सतगुर के हथियारि ।। 9 ।।
शब्दार्थ:- उनमनी-योग की उत्पन्न दशा । । भिद्या-बेच दिया। मेल-वृत्तियों
व्याख्या:- योग की उन्मन दशा का वर्णन करते हुए कबीरदास जी कहते है कि मन की चंचल वृत्तियों को समाप्त कर सद्गुरु के उस उपदेश ने (प्रेम के) बाण ने हृदय को बेच दिया। परिणामस्वरूप शिष्य न हँसता है। और न बोलता है अर्थात सांसारिक हासविलास तथा राग विराग से असम्पृक्त हो गया है।
विशेष: (1) रूपकातिशयोक्ति अलंकार। (2) प्रयोजनवती गूढ व्यंग्य लक्षणा (3) शिष्य में चंचलता का अत्यन्ताभाव व्यंग्य है। (4) उन्मनी अवस्था हठयोग या राजयोग की सिद्धावस्था है, जिसमें मन समाधिस्य होकर पहुँचता है।
गूंगा हूँवा बाबला, बहरा हुआ कान।
पाऊँ थे पंगुल भया, सतगुर मार्या बाण || 10 ||
शब्दार्थ- पाऊँ थे – पैरों से, पंगुल-पंगु लँगडा ।
व्याख्या:- सद्गुरु के उपदेश रूपी बाण के लगते ही शिष्य मुँह से गूंगा, बुद्धि से पागल एवं कानों से बहरा और पैरों से लॅगड़ा हो गया है। भाव यह है कि शिष्य वाणी का प्रयोग व्यर्थ के वाद-विवाद में नहीं करता एवं उसके कान भी प्रेम-भक्ति चर्चा के अतिरिक्त अन्य विषयों के लिए बहरे हैं एवं सांसारिक प्रयत्न से विरत होने के कारण लँगड़ा हो गया है। इस विशेष स्थिति के कारण ही उसे पागल बताया गया है।
विशेष:- (1) प्रयोजनवती लक्षणा (2) शिष्य को प्राप्त होने वाली परम शान्ति व्यंग्य है।
कबीर ग्रंथावली श्यामसुंदर दास
पाएँ लागा जाइ था. लोक बेद के साथि ।
आगँ थै सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि ||11 ||
शब्दार्थ- दीपक ज्ञान की ज्योति ।
व्याख्या:- मैं (शिष्य) लोक एवं वेद विहित मार्ग का अंधानुकरण करता जा रहा था, किन्तु आगे पथ में गुरुदेव मिल गये और उन्होनें ज्ञान का दीपक मेरे हाथ में दे दिया जिससे मैं अपना पथ स्वयं खोजकर लक्ष्य (बा तक पहुँच सकूँ।
विशेष:- (1) सांगरूपक रूपकातिशयोक्ति एवं अलंकार (2) कबीर शास्त्र मार्ग (वेद मार्ग) का ही अस्वीकार नहीं करते अपितु मोरीमति के लोक की रूढियों का भी अस्वीकार करते हैं। यह प्रगतिशील चेतना उन्हें आधुनिक युग के सर्वाधिक निकट लाती है।
दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट ।
पूरा किया बिसाहुणां, बहुरि न आँवों हट्ट ।। 12 ।।
शब्दार्थ – अघट्ट -कभी घटने न वाली। बिसाहूणां – क्रय-विक्रय। हट्ट-बाजार ।
व्याख्या:- सद्गुरु ने प्रेमरूपी तेल से परिपूर्ण सर्वदा रहने वाली ज्ञानवर्तिका से युक्त दीपक मुझे प्रदान किया है। इसके प्रकाश में संसार रूपी बाज़ार में मैंने कमों का समस्त क्रय-विक्रय उपयुक्त रीति से कर लिया है। मन- अब मै पुनः इस बाजार में नहीं आऊँगा। अर्थात् इस ज्योति के द्वारा में जीवनमुक्त हो जाऊँगा।
विशेष:- 1 अलंकार – सांगरूपक एवं रूपकातिशयोक्ति ।
2. कबीर के पुनर्जन्म एवं जीव के आवागमन में विश्वास का परिचय प्राप्त होता है।
ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बीसरि जाइ।
जब गोबिन्द कृपा करी, तब गुर मिलिया आइ || 13 ||
शब्दार्थ:- जिनि-जिन्हें बीसरि-छोड़ना।
व्याख्या:- गुरुदेव से भेंट होने पर हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो गया। ऐसे ज्ञान स्वरूप गुरु से विमुख नहीं होना चाहिए। यह प्रभु कृपा का ही फल है कि गुरुवर मुझे मिल गए।
विशेषः सदगुरु की प्राप्ति के लिए कबीर भगवत्कृपा को आवश्यक मानते हैं।
कबीर गुर गरवा मिल्या, रलि गया आटो लूंण ।
जाति पाँति कुल सब मिटे, नांव धरैगो कूण || 14 ||
शब्दार्थः- गुरु-गुरु । गरवा गौरवमय लूण- नमक । नांव नाम कूण- कौन सा ।
व्याख्या- कबीर कहते हैं कि मुझे गौरवमय गुरुदेव के दर्शन हुए उन्होंने अपने ज्ञान स्वरूप में मुझे इसी प्रकार एक कर लिया, (अपने में मिला लिया) जैसे आटे में नमक मिल जाता है। अर्थात् गुरुदेव से इस प्रकार एक हो जाने पर मेरा स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रह गया है और मेरे स्वतंत्र व्यक्तित्व के बोधक जाति-पाँति, कुल आदि सब नष्ट हो गये, अब तुम (संसार) मुझे गुरु से पृथक मानने के लिए किस नाम से पुकारोगे? भाव यह है कि अब मेरा गुरु के ज्ञानस्वरूप के साथ ऐक्य स्थापित हो गया है।
विशेष :- (1) प्रथम पंक्ति में प्रतिवस्तूपमा:: (2) साधक की कोई जाति-पाँति नहीं होती। प्रकारांतर से जाति-पाँति, ऊँच नीच व्यवस्था पर प्रहार किया है।
जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध ।
अंधै अंधा ठेलिया, दून्यूं कूप पड़न्त ।। 15 ||
शब्दार्थ:- अंधला-अंधा, मूर्ख । खरा- पूर्णरूप से सही । निरंध-अंध, मूर्ख । कूप- कुँआ।
व्याख्या:- यहाँ कबीरदास जी गुरु की योग्यता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि जिस शिष्य का गुरु भी अन्धा है, अज्ञानी है एवं शिष्य भी पूर्णरूपेण अन्धा, मूढ़ है, वे दोनों लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकेंगे। अन्धा अन्धे को अज्ञान देकर ही ठेल-ठालकर मार्ग पर बढ़ायेगा तो परिणाम यह होगा कि दोनों ही पतन के कुएँ में गिर पड़ेंगे।
विशेष:- (1) यहाँ शब्दों की अभिव्यंजना शक्ति दर्शनीय है। (2) गुरु को अच्छा शिष्य और शिष्य को अच्छा गुरु चाहिए तभी दोनों का उद्धार हो सकता है। यह भाव व्यक्त हुआ है।
नां गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या दाव ।
दून्यूं बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव || 16 ||
शब्दार्थः- सिष-शिष्य । बूड़े-डूब गये । पाथर – पत्थर, अज्ञान ।
व्याख्या:- न तो ज्ञानी सदगुरु ही मिला और न शिष्य वास्तविक परिभाषा में शिष्य अर्थात् ज्ञानाभिलाषी ही था। दोनों ज्ञान के नाम पर लालच का दाँव खेलते रहे, एक-दूसरे को धोखे में डालने का प्रयास करते रहे, और इस प्रकार दोनों मंझधार में ही डूब गए, तट-लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाए, जैसे कोई पत्थर की नाव का आश्रय लेकर सागर तरने का प्रयास करें तो बीच ही में डूब जाय ।
विशेष:- (1) उपमा अलंकार।
चौसठि दीवा जोइ करि, चौदह चंदा मांहि ।
तिर्हि घरि किसकौ चानिणों, जिहिं घरि गोबिन्द नाहि || 117 ||
शब्दार्थ- जोइ करि – जलाकर, प्रकाशित करके। चानिणौ-चहेता, अभीप्सित।
व्याख्या:- यदि कोई अपने हृदय मन्दिर में चौंसठ कलाओं की ज्योति प्रकाशित कर ले और चन्द्रमा की चौदह कलाओं के समान प्रकाशपूर्ण चौदह विद्याओं का उज्ज्वल प्रकाश विकीर्ण कर ले अर्थात् पूर्ण ज्ञानी हो जाय, किन्तु यदि वह मंदिर, प्रभु भक्ति के अभाव में अन्धकारपूर्ण है तो वह किसी का अभीप्सित नहीं हो सकता । भाव यह है कि जीवन की सार्थकता भगवद्भक्ति में है।
विशेष:- 1.कबीर यहाँ ज्ञान और भक्ति के सम्बन्ध के पोषक है और भक्ति को ज्ञान के ऊपर मानते हैं। 2. चन्द्रमा की चौदह कलाएँ कहने से कबीर पर इस्लामी संस्कृति का प्रभाव परिलक्षित होता है।
निस अंधियारी कारण, चौरासी लख चंद
अगि आतुर ऊदै किया, तऊ दिष्टि नहीं मंद।। 18 ।।
शब्दार्थ- निसि – निशि, रात, अज्ञान । किया उदित किया, प्राप्त किया। मंद-मूर्ख ।
व्याख्या:- अपनी अज्ञान की अन्ध तमसा के कारण तुझे चौरासी लाख योनियों में भटक कर इनकी यातना सहनी पड़ी और तब बड़े कष्ट से मानव योनि में आया। मूर्ख फिर भी तेरी आँखें नहीं खुलती, तू फिर भी कुमार्ग की ओर ही बढ़ रहा है।
विशेष:- कबीर पर वैष्णव प्रभाव देखा जा सकता है (पुनर्जन्म में विश्वास)
भली भई जु गुर मिल्या, नहिं तर होती हांणि।
दीपक दिष्टि पतंग ज्यूं पड़ता पूरी जाणि ।। 19 ।।
शब्दार्थ- नहिं तर-अन्यथा, पूरी जाणि- सर्वस्व समझकर ।
व्याख्या:- साधक कहता है कि अच्छा ही हुआ कि. गुरुदेव मिल गए, अन्यथा बड़ी भारी हानि होती। जिस प्रकार शलभ दीप शिखा को सर्वस्व जान उस पर जल मरता है उसी प्रकार में भी सांसारिक माया के आकर्षण को सर्वस्व समझकर पतंगे (कीड़े) के समान जलकर नष्ट हो जाता।
विशेष- द्वितीय पंक्ति में उपमा है।
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पद्धत ।
कहै कबीर गुर ग्यान थे. एक आध उबरंत ||20||
शब्दार्थः- भ्रमि भ्रमि – मँडरा-मँडराकर, इवे- उसी पर
व्याख्या- माया रूपी दीपक है और मानव पतंगा है जो मँडरा-मँडराकर (आकर्षित होकर) उसी दीपशिखा पर गिरकर विनष्ट होता है। कबीर कहते हैं कि इस मायादीप के आकर्षण से कोई एकाध विरले ही गुरु से ज्ञान प्राप्त कर बच पाते हैं।
विशेष- रूपक के द्वारा कवि ने गुरु की महत्ता की व्यंजना की है। इस प्रकार अलंकार द्वारा वस्तु ध्वनि है।
कबीर ग्रंथावली व्याख्या
सतगुर बपुरा क्या करें. जे सिवही मांहे चूक l
भावै त्यू प्रमोधि ले, ज्यूं बसि बजाई फूक ।। 21 ।।
शब्दार्थ- बपुरा बेचारा। चूक कमी।
व्याख्या: यदि शिष्य में ही त्रुटि है तो बेचारा ज्ञानी गुरु भी क्या कर सकता है। चाहे उसे किसी प्रकार से समझा दो, किन्तु सब यो ही क्षण में बाहर निकल जाता है। जैसे वंशी में फूँक क्षण भर रह कर बाहर निकल जाती है और यह बांसुरी फिर काष्ठ अर्थात् निर्जीव (शिष्य पक्ष में मूढ़) रह जाती है।
विशेष- दृष्टान्त अलकार।
संसै खाया सकल जुगु, संसा किनहूँ न खद।
जे वैधे गुर अबिर, तिनि संसा चुणि चुणि खद्ध। 22 ।।
शब्दार्थ- संसै-संशय, भ्रम अधिरा-अक्षर ज्ञान।
व्याख्या:- माया के भ्रम ने समस्त जगत को विनष्ट किया है, किन्तु इस भ्रम को कोई नहीं नष्ट कर पाया। गुरु-ज्ञान की वाणी से प्रभावित जो लोग थे उन्होंने इस माया-भ्रम को चुन-चुनकर नष्ट कर दिया।
विशेष:- 1. इसमें मानवीकरण से सजीवता आ गई है। 2 अलकार से वस्तु ध्वनित है। व्यंग्य है- शिष्य की परम तत्वज्ञता ।
चेतनि चौकी बैसि करि सतगुर दीन्हों धीर।
निरमे होइ निसंक भजि. केवल कहै कबीर ||23||
शब्दार्थ:- चेतनि-ज्ञान निरभे होई-निर्भय होकर।
व्याख्या: कबीर कहते हैं कि सदगुरु ने ज्ञान की चौकी पर बैठकर शिष्य को प्रबोध देकर धैर्य प्रदान कर कहा कि तुम निर्मल चित्त हो, सांसारिक त्रासों से भयरहित होकर केवल ईश्वर का ही भजन करो।
विशेष:- रूपक अलंकार ।
सतगुर मिल्या त का भया, जे मन पाड़ी भोल।
पासि बिनट्ठा कप्पड़ा, क्या करे बिचारी चोल ||24||
शब्दार्थ- पाडी पड़ी हुई है। भोल-मूल, भ्रम । बिनट्ठा नष्ट हो गया। चौल-मजीठ (विशेष लता जिसे उबाल कर लाल रंग निकाला जाता है।)
व्याख्या- जिन लोगों के चित्त भ्रम युक्त है उन्हें यदि सद्गुरु मिल भी गये तो क्या लाभ होगा? वे ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। यदि वस्त्र को रेंगने से पूर्व पुट देने (बाँधने) में ही वह नष्ट हो जाये तो सुन्दर रंग देने में समर्थ मजीठ विचारा क्या कर सकता है, फटे हुए वस्त्र को किस प्रकार सुन्दर रंग दे त्रुटिपूर्ण शिष्य के साथ यही अवस्था गुरु की है।
विशेष:- पासि संस्कृत पुल्लिंग शब्द पास है, जिसका अर्थ है लाल रंग का जवास होता है। पाशन से भी पासि का विकास संभव है-अर्थ होगा किनारी के लिए रंगे जाने वाले वस्त्र को विशेष रूप से बाँधना। दृष्टांत अलंकार।
बुड़े थे परि ऊबरे, गुरु की लहरि चमकि ।
मेरा देख्या जरजरा, (तब) ऊतरि पढ़े फरक ||25||
शब्दार्थ- परि-पर परन्तु भेड़ा-बेडा । जरजरा- जीण-शीर्ण, फरक तुरन्त तत्क्षण।
व्याख्या:- हम तो इस भवसागर में डूबने को ही थे कि गुरुकृपा की एक लहर ने हमे पार लगा दिया। उस गुरु कृपा के द्वारा ही हमने देखा कि जिस वेद-शास्त्र आदि के बेड़े से हम संसार सागर पार करना चाहते थे, वह तो जीर्ण-शीर्ण है, अतः हम उससे तत्क्षण कूद पड़े और प्रभु-भक्ति का सम्बल ग्रहण किया। भाव यह है कि केवल गुरु कृपा से ही भवसागर पार किया जा सकता है।
विशेष- गुरु की लहरि ‘चमकि में रूपकातिशयोक्ति है। “मेरा देखा जरजरा में भी यही अलंकार है।
गुर गोबिन्द तो एक है, दूजा यहु आकार।
आपा मेट जीवत मरे तो पावै करतार। ||26||
व्याख्या- गुरु और गोविन्द (ब्रह्म) तो एक ही हैं, उनमें कोई अन्तर नहीं है। यह अपना मायाजनित शरीर ही इस भासित द्वैत का कारण है। यदि हम इस अहत्य, अयं निज परवेति’ की भावना को समाप्त कर जीवनमुक्त हो जायें तो प्रभु ब्रह्म की प्राप्ति हो सकती है।
विशेष:- विरोधाभास के कारण इस साखी में चमत्कार उत्पन्न हो सका है।
कबीर सतगुर नां मिल्या, रही अधूरी सीप ।
स्वांग जती का पहरि करि घरि-घरि मांगे भीष || 27 ।।
व्याख्या:- कबीरदास जी कहते है कि यदि शिष्य को सद्गुरु की प्राप्ति नहीं होती तो उसकी शिक्षा अपूर्ण रह जाती है। तपस्वी वेश धारण करके द्वार-द्वार पर मिक्षा माँगने वाले सद्गुरु नहीं हो सकते।
विशेष- ‘स्वांग जती का पहरि करि में एक व्यापक बिम्ब थोड़े शब्दों में मूर्तिमान हो गया है।
सतगुर सांचा सूरियाँ, तातें लोहिं लुहार।
कसणो दे कंचन किया, ताइ लिया ततसार ।। 28 ||
शब्दार्थ -तात-तप्त। लोहि-लोहा। लुहार-लोहे का कार्य करने वाला।
व्याख्या:- सद्गुरु सच्चा शूरवीर हैं जो शिष्य को अपने प्रयत्नों से उसी प्रकार योग्य बना देता है जिस प्रकार लुहार तप्त लोहे को पीट-पीट कर सुघड़ और सुडौल आकार देता है। कबीर कहते हैं कि सद्गुरु शिष्य को परीक्षा की अग्नि में तपा-तपा कर स्वर्णकार की भाँति उसे इस योग्य बना देते हैं कि वह शुद्ध कंचन की कसौटी पर खरा उतर कर ब्रहा (तत्व) को प्राप्त कर ले। वस्तु से व्यतिरेक अलंकार ध्वनित है।
थापणि पाई थिति भई सतगुर दीन्ह धीरl
कबीर हीरा बणजिया, मानसरोवर तीर। || 29 ।।
शब्दार्थ – थापणि-शिष्य रूप में अपनी स्थापना। बणजिया-वाणिज्य, व्यापार
व्याख्या: सद्गुरु से शिष्य रूप में स्वीकृति पाकर, उनका शिष्यत्व ग्रहण कर मेरा चंचल मन स्थिर हो गया और उन्होंने मुझे धैर्य प्रदान किया। इस मन की एकाग्रता से मैं मनरूपी सरोवर पर (हंसों की भाँति मुक्ता चुग रहा हूँ।
विशेष: मनः साधना की महत्ता प्रकट की गई है।
निश्चल निधि मिलाइ तत, सतगुर साथ धीर।
निपजी मैं सांझी घणां, बाटै नहीं कबीर ||30||
शब्दार्थ:- निश्चल निधि-ब्रह्मा । तत-आत्मा । घणा-बहुत से
व्याख्या: सद्गुरु के साहस और धैर्य ने आत्मा को ब्रह्म से मिला दिया। महामिलन से जो सुख उत्पन्न हुआ उसका भागीदार बनने के लिए बहुत से व्यक्ति व्याकुल हैं, किन्तु कबीर उसे बाँटने के लिए प्रस्तुत नहीं, क्योंकि वह परमतत्त्व का आनन्द दूसरे के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः उस आनन्द को प्राप्त करने के लिए स्वयं की आत्मा का ब्रह्म से साक्षात्कार आवश्यक है।
विशेष- 1.रूपक अलंकार से अमूर्त को मूर्त किया गया है। 2.दूसरी पंक्ति में व्यापक क्रिया-बिम्ब आकर्षक है।
कबीर ग्रंथावली : गुरूदेव कौ अंग
चौपड़ि मांडी चौहटै, अरघ उरच बाजार।
कहै कबीरा राम जन, खेलौ संत विचार ||31।।
शब्दार्थ- चौपडि-चौपड़ का खेल मांडी बिछी है।
व्याख्या:- शरीर के चौराहे पर चौपट बिछी है। उसके नीचे एवं ऊपर दोनों ओर चक्रों का बाजार लगा हुआ है। (योगियों ने शरीर के अन्तर्गत षटचक्रों की स्थिति मानी है जो मूलाधार से प्रारम्भ होकर शीर्ष में ब्रह्मरन्ध्र तक बिछे हुए हैं। इन षट्चक्रों का भेदन करके ही कुण्डलिनी ब्रह्मरन्ध में पहुँचती है जहाँ अमृत निस्तृत होता है) कबीरदास जी कहते हैं कि प्रभु भक्त-सन्त गण इस खेल को विचारपूर्वक खेलते हैं अर्थात् योगसाधना में प्रवृत्त होते हैं।
विशेष- रूपकातिशयोक्ति द्वारा एक पूरे सूक्ष्म व्यापार को मूर्त किया गया है।
पासा पकड़या प्रेम का, सारी किया शरीर।
सतगुर दाव बताइया, खैलें दास कबीर 32 ।।
व्याख्या- प्रेम के पासे से शरीर रूपी चौपड़ भक्त कबीर ने खेल प्रारम्भ कर दिया है और सद्गुरु दाव बनाते जा रहे हैं। भाव यह है कि साधक ने प्रेम का आश्रय लेकर गुरु के निर्देशन में योगसाधना प्रारम्भ कर दी है।
विशेष- रूपक द्वारा, आसक्तिहीन साधना को मूर्त बनाया गया है।
सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्या प्रसंग ।
बरस्या बादल प्रेम का भीजि गया सब अंग । 33 ।।
शब्दार्थ:- रीझिकरि-प्रसन्न होकर ।
व्याख्या:- सद्गुरू ने हम से प्रसन्न होकर प्रभु-भक्ति की ऐसी मनोरम चर्चा छेड़ी कि प्रेम का बादल बरस गया जिससे शरीर का अंग-प्रत्यंग उस प्रेम-जल से सिक्त हो गया ।
विशेष :- रूपक द्वारा भक्ति की आनन्दायिनी अनुभूति को साकार किया गया है।
कबीर बादल प्रेम का हम पर बरष्या आई ।
अंतरि भीगी आत्मां, हरी भई बनराइ । 34 ।।
शब्दार्थः- बनराय-वन- प्रदेश |
व्याख्या:- प्रभु-प्रेम बादल का बरसा, जिससे अन्तरात्मा उस प्रभु-प्रेम जल से भीग गई और उसी के आनन्द में शरीर रूपी वन-प्रदेश में भी हरियाली, उत्फुल्लता छा गई।
विशेष:- असंगति अलंकार ।
पूरे सूं परचा भया, सब दुख मेल्या दूरि ।
निर्मल किन्ह आत्मां, तार्थं सदा हजूरि ।।35 ||
शब्दार्थः- परचा-परिचय । मेल्या दूरि-दूर कर दिये । तातें-इसी कारण से ।
व्याख्या:- सर्वसमर्थ पूर्ण गुरु से मेरा परिचय हो गया, उन्होंने समस्त दुःख दूर कर दिये। उन दुःखों के अभाव में आत्मा निर्मल होकर सर्वदा प्रभु-भक्ति में संलग्न रहती है।
विशेषः- हजूर अरबी का शब्द है, जिसका अर्थ किसी के सम्मुख रहता है, कबीर ने इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है।
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कबीर ग्रंथावली : गुरूदेव कौ अंग के रचनाकार ?
श्यामसुंदर दास