भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ कवि ओर रचनाएं

भक्तिकाल

भक्तिकाल भारतीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण युग है, जो क्रिस्ट के 7वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी के बीच का समय स्पन्दित करता है। इस युग में भक्ति और आत्मा के प्रति अनुराग का अत्यंत महत्व था। यह युग धार्मिक उन्नति, भावनात्मकता, साहित्यिक गतिविधियों, संगीत, कला, और भाषाओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया।

भक्तिकाल के दौरान, भारतीय साहित्य में सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभाव थे, जिन्होंने लोगों को दिव्यता और आध्यात्मिकता की ओर आकर्षित किया। इस युग में संत कवियों ने अपनी भक्ति, भावनाओं और आत्मा के साथ अपनी गहरी जुड़ने की भावना से भरपूर काव्य और गीत रचे। यह काव्य सांस्कृतिक एकता और मानवीयता की प्रेरणा से भरपूर था।

भ्रमरगीत काव्य परम्परा, सूफी काव्याधारा, अष्टछाप के कवि और बीजक

कवियों में सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, कबीर, रामानंद, तुकाराम, नामदेव, चैतन्य महाप्रभु, गोस्वामी तुलसीदास, संत एकनाथ, गुरु नानक, शेख़ फ़रीद, संत तुकाराम, और बहुत से और महत्वपूर्ण भक्ति काव्यकार शामिल हैं। इन्होंने भक्ति, समर्पण, और आत्मा के प्रति प्रेम के माध्यम से समाज को जोड़ा और उन्हें धार्मिकता की ओर प्रेरित किया।

भक्तिकाल के युग में विभिन्न भाषाओं में भक्तिसंबंधी ग्रंथों की रचना की गई, जिनमें संतों के दोहे, भजन, कविताएँ और धार्मिक ग्रंथ शामिल हैं। यह साहित्य मानवता के मूल्यों, सामाजिक समरसता के सिद्धांतों, और आत्मा के महत्व की महान प्रशंसा करता है।

इस प्रकार, भक्तिकाल भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक विकास के महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है, जो हमारे समाज और धार्मिक सोच को आदर्श और प्रेरणा प्रदान करता है।

भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ 

भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ 
भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ 

भक्तिकाल में कई प्रमुख प्रवृत्तियाँ थीं जो भारतीय साहित्य, संस्कृति और समाज को प्रभावित करती थीं। यहाँ कुछ मुख्य प्रवृत्तियाँ हैं:

  1. भक्ति: यह प्रमुख प्रवृत्ति थी जिसने भक्तिकाल को अपनी पहचान दी। संतों ने अपनी भक्ति और प्रेम के माध्यम से ईश्वर के प्रति अपनी गहरी भावनाओं को व्यक्त किया और लोगों को धार्मिक मार्ग पर प्रेरित किया।
  2. भजन और कीर्तन: संतों और कवियों ने भजन और कीर्तन के माध्यम से भक्ति और आत्मा के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त किया। ये गाने और कविताएँ लोगों के दिलों में भगवान की महानता और प्रेम की भावना को बढ़ावा देती थीं।
  3. सामाजिक समरसता: भक्ति संवाद के माध्यम से संतों ने सामाजिक समरसता, समाज में सभी की समानता, और मानवता के मूल्यों को प्रमोट किया। वे समाज की भ्रष्टाचार, जातिवाद, और अन्य दुर्गुणों के खिलाफ उत्कृष्ट विचार दिखाते थे।
  4. धार्मिक सहिष्णुता: संतों ने धार्मिक सहिष्णुता को प्रमोट किया और लोगों को यह सिखाया कि सभी धर्मों का आदर करना और सहिष्णुता बरतना मानवता के मूल मूल्यों में होना चाहिए।
  5. प्रेम और सामाजिक सम्पर्क: भक्तिसंतों ने प्रेम के माध्यम से समाज में मानवीय बनाने की महत्वपूर्णता को स्वीकारा और लोगों को आपसी सम्पर्क के माध्यम से समाज की समरसता को बढ़ावा दिया।
  6. भाषा के प्रमोटर: भक्तिकाल ने भारतीय भाषाओं के विकास को प्रोत्साहित किया। संतों ने अपनी भक्ति और आत्मा की भावनाओं को अपनी मातृभाषा में व्यक्त किया, जिससे भाषाओं का स्थान मजबूत हुआ।
  7. जनसंख्या के समर्थक: संतों ने लोगों के बीच धार्मिक जागरूकता फैलाई, जिससे जनसंख्या के विकास में भी योगदान हुआ। उन्होंने समाज के हर वर्ग में धर्म के महत्व को स्थापित किया।
  8. लोकगीत और साहित्यिक स्थान: भक्तिकाल में लोकगीत और साहित्यिक कामों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। संतों ने अपने भक्तिपूर्ण गीतों के माध्यम से सामाजिक सन्देश पहुंचाया और जनमानस को प्रभावित किया।
  9. साहित्यिक संबंध: भक्तिकाल के कवियों ने भारतीय साहित्य को विशेष दिशा देने का प्रयास किया। वे संग्रहणी कला के माध्यम से लोगों के दिलों में अपनी रचनाओं को बसा दिया।
  10. आध्यात्मिकता की प्रेरणा: भक्तिकाल के संतों की आध्यात्मिकता की भावना ने लोगों को अपने आंतरिक जीवन की ओर ध्यान मोड़ने के लिए प्रेरित किया।

ये प्रमुख प्रवृत्तियाँ थीं, जिनका भक्तिकाल के साहित्यिक और सांस्कृतिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान था।

भक्तिकाल ने भारतीय साहित्य और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को विकसित किया और धार्मिकता, आत्मा के प्रति अनुराग, सामाजिक समरसता, भाषा, और भारतीय साहित्य के प्रति नया दृष्टिकोण प्रदान किया।

भ्रमरगीत काव्य परम्परा, सूफी काव्याधारा, अष्टछाप के कवि और बीजक

भक्ति काल की विशेषताएं

भक्ति काल की विशेषताएं
भक्ति काल की विशेषताएं

भक्तिकाल भारतीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण युग था, जिसमें धार्मिकता, आत्मा के प्रति अनुराग, सामाजिक समरसता, और संस्कृति के विकास में कई महत्वपूर्ण विशेषताएँ थीं। निम्नलिखित हैं भक्तिकाल की कुछ मुख्य विशेषताएँ:

भक्तिकाल के प्रमुख सम्प्रदाय, प्रवर्तक, दर्शन, गुरु और शिष्य

  1. भक्ति और प्रेम: भक्तिकाल का सबसे महत्वपूर्ण गुण भक्ति और प्रेम की भावना थी। संतों ने भगवान और आत्मा के प्रति गहरी भक्ति और प्रेम का प्रचार किया, जिससे लोग आध्यात्मिकता के प्रति आकर्षित हो गए।
  2. धर्मिक समरसता: भक्तिकाल में संतों ने धार्मिक समरसता को प्रमोट किया। वे अलग-अलग धर्मों के प्रति सहिष्णु थे और मानवता के मूल्यों की प्रशंसा करते थे।
  3. सामाजिक सुधार: संतों ने समाज में सुधार के लिए प्रेरित किया। उन्होंने जातिवाद, असमानता, और अन्य सामाजिक दुर्गुणों के खिलाफ आवाज उठाई, और समाज में समरसता बढ़ाने का संदेश दिया।
  4. भाषा का महत्व: भक्तिकाल ने भारतीय भाषाओं के विकास को बढ़ावा दिया। संतों ने अपने भक्तिपूर्ण गीतों और भाषाओं में लोगों के दिलों में भगवान की महिमा को पहुंचाया।
  5. लोकप्रियता: भक्तिकाल के संत और कवियों का साहित्य लोकप्रिय था। उनके द्वारा रचित गीत, भजन, और कविताएँ आम लोगों तक पहुंचती थीं और उनके माध्यम से धार्मिकता का प्रचार होता था।
  6. आत्ममुक्ति की प्रेरणा: संतों की भक्ति और साधना की भावना से जुड़ा आत्ममुक्ति का सिद्धांत था। वे लोगों को आत्मा के मार्ग पर प्रेरित करते थे और उन्हें आत्मा की मुक्ति की प्राप्ति की ओर प्रोत्साहित करते थे।

ये विशेषताएँ भक्तिकाल को एक महत्वपूर्ण और उपयोगी साहित्यकाल बनाती हैं, जो भारतीय साहित्य, सांस्कृतिक विकास, और आत्मा के प्रति भावनाओं की अद्वितीय धारा थी।

भ्रमरगीत काव्य परम्परा, सूफी काव्याधारा, अष्टछाप के कवि और बीजक

भक्तिकाल के प्रमुख कवि

भक्तिकाल के प्रमुख कवि
भक्तिकाल के प्रमुख कवि

भक्तिकाल के दौरान कई प्रमुख कवि और संत थे, जिन्होंने भारतीय साहित्य को आदर्शों की दिशा में प्रेरित किया और उनकी रचनाएँ आज भी प्रसिद्ध हैं। ये कवि और संत अलग-अलग भाषाओं में अपनी रचनाएँ लिखते थे और उनका साहित्य धार्मिकता, भक्ति और मानवता के मुद्दों पर आधारित था। निम्नलिखित कुछ प्रमुख कवि और संत थे:

भक्तिकाल के प्रमुख सम्प्रदाय, प्रवर्तक, दर्शन, गुरु और शिष्य

  1. सूरदास: सूरदास भक्तिकाल के महान संत और कवि थे। उनके दोहे, पद और संत काव्य कृष्ण भक्ति में प्रसिद्ध हैं।
  2. तुलसीदास: तुलसीदास कविता की अद्वितीय प्रेरणास्त्रोत थे। उनका महाकाव्य “रामचरितमानस” रामायण के आध्यात्मिक और धार्मिक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण है।
  3. मीराबाई: मीराबाई राजपूतानी संप्रदाय की रानी थी जिन्होंने अपने प्रेम में श्रीकृष्ण के प्रति अपना जीवन समर्पित किया। उनके भजन और पद उनकी भक्ति और साहित्य के महत्वपूर्ण हिस्से हैं।
  4. कबीर: कबीर एक महान संत और समाज सुधारक थे। उनके दोहे और गीत सामाजिक समरसता, धर्मिक सहिष्णुता, और आत्मा की महत्वपूर्ण बातों को उजागर करते हैं।
  5. गुरु नानक: गुरु नानक सिख धर्म के प्रमुख संस्थापक और संत थे। उनके बानी (रचनाएँ) गुरु ग्रंथ साहिब में समाहित हैं, जो सिखों के प्रमुख ग्रंथ हैं।
  6. नामदेव: नामदेव महाराष्ट्र के महान संत और कवि थे। उनके भक्तिपूर्ण अभिव्यक्ति के माध्यम से वे भक्ति के प्रति लोगों को प्रेरित करते थे।
  7. चैतन्य महाप्रभु: चैतन्य महाप्रभु बंगाल के संत और भक्ति आंदोलन के प्रमुख नेता थे। उनके आद्यतन भक्ति और कीर्तन के माध्यम से वे लोगों को आत्मा के प्रति प्रेम की ओर प्रवृत्त करते थे।
  8. सूरदास: सूरदास के भक्ति काव्य और गीत भगवान कृष्ण के प्रति उनकी अद्वितीय प्रेम भावना का प्रतिष्ठान हैं। उनके पद, दोहे और संत काव्य ने हिन्दी साहित्य को एक नये आध्यात्मिक स्तर पर उठाया।
  9. संत तुलसीदास: तुलसीदास ने “रामचरितमानस” के माध्यम से भारतीय साहित्य को अमर कृति दिया। इस कृति में उन्होंने रामायण की कथा को मानवता, धर्म, और आध्यात्मिकता के प्रिस्तभूमि में प्रस्तुत किया।
  10. संत कबीर: संत कबीर के दोहे और अद्भुत संत काव्य में आध्यात्मिक भक्ति का व्यक्तिगत अनुभव प्रमुख है। उन्होंने जातिवाद और धार्मिक समरसता के प्रति आवाज उठाई और मानवता की महत्वपूर्ण बातों को साझा किया।
  11. संत मीराबाई: मीराबाई के भजन और पद प्रेम, आत्मा के प्रति अनुराग, और भगवान के प्रति विश्वास के महत्वपूर्ण प्रतीक हैं। उनकी रचनाएँ भक्ति काव्य की एक अद्वितीय धारा हैं।
  12. संत नामदेव: संत नामदेव के भजन और अद्भुत संत वाणी में भगवान के प्रति अपने दृढ़ भक्ति और समाज में समरसता की महत्वपूर्ण बातें प्रकट होती हैं।
  13. संत ग्यानेश्वर: संत ग्यानेश्वर की बहुभाषी टीका “ग्यानेश्वरी” भगवद गीता के आध्यात्मिक भाष्य के रूप में मानी जाती है, जिसने आध्यात्मिकता और धर्म के मामले में नए दृष्टिकोण प्रस्तुत किए।
  14. संत सूरमा: संत सूरमा की भक्ति रचनाएँ सिखों के स्वाधीनता संग्राम के समय में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उनके द्वारा लिखी गई भजन और अन्य रचनाएँ आज भी सम्मानित हैं।

ये केवल कुछ उदाहरण हैं, और भक्तिकाल में भारतीय साहित्य के और भी कई महान कवि और संत थे, जिनका योगदान समाज, साहित्य, और आत्मा के प्रति अपार महत्वपूर्ण है।

भक्तिकाल की परिभाषा

भक्तिकाल भारतीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण युग है, जो आध्यात्मिक भक्ति, धार्मिक समरसता, और आत्मा के प्रति अनुराग की अद्वितीय धारा को प्रकट करता है। यह काल भारतीय साहित्य के विभिन्न भाषाओं में विकसित हुआ था, जैसे कि हिन्दी, संस्कृत, अवधी, मराठी, गुजराती, बंगाली, तेलुगु, तमिल, पंजाबी, और अन्य।

भक्तिकाल का समयावधि आमतौर पर 14वीं से 17वीं शताब्दी के बीच मानी जाती है, लेकिन इसमें कुछ अंश 12वीं शताब्दी से भी शुरू होते हैं। इस काल के दौरान, धार्मिक भक्ति और आत्मा के प्रति अनुराग की महत्वपूर्णता बढ़ गई थी, और भक्ति संवाद के माध्यम से संतों ने समाज को सही मार्ग पर प्रेरित किया।

भक्तिकाल के प्रमुख सम्प्रदाय, प्रवर्तक, दर्शन, गुरु और शिष्य

भक्तिकाल के समय में कई महान संत और कवि उत्कृष्ट रचनाएँ लिखे, जिनमें वे भगवान की महिमा, आत्मा के महत्व, समाज में समरसता, धर्मिक सहिष्णुता, और जीवन के उद्देश्य के मुद्दों पर विचार करते थे। उनके द्वारा रचित भजन, दोहे, पद और संत काव्य साहित्य के महत्वपूर्ण हिस्से बने और आज भी उनके काव्य का महत्व बना हुआ है।

इसके अलावा, भक्तिकाल के समय में साहित्य, कला, संगीत, और सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण विकास हुआ। इस युग में धार्मिकता, सहिष्णुता, और आत्मा के प्रति भावना का महत्वपूर्ण प्रमोटन हुआ और यह साहित्य और सांस्कृतिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया।

भक्तिकाल की प्रमुख शाखाये

भक्तिकाल की प्रमुख शाखाये
भक्तिकाल की प्रमुख शाखाये

भक्तिकाल की प्रमुख शाखाएँ भारतीय साहित्य में विभिन्न धाराएँ हैं, जिनमें विभिन्न धार्मिक संप्रदायों और समाज की भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के साधकों और कवियों ने अपनी भक्ति और धार्मिक अनुष्ठान को प्रकट किया।

यहाँ प्रमुख भक्तिकाल की कुछ प्रमुख शाखाएँ हैं:

  1. वैष्णव शाखा: इस शाखा के साधक विष्णु भगवान और उनकी अवतारों के प्रति अपनी भक्ति को प्रकट करते हैं। इसमें संत तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई आदि के रचनाएँ शामिल हैं।
  2. शैव शाखा: इस शाखा के साधक भगवान शिव के प्रति अपनी भक्ति को प्रकट करते हैं। संत तुकाराम की रचनाएँ शैव भक्ति के उदाहरण होती हैं।
  3. शाक्त शाखा: इस शाखा के साधक देवी मां के प्रति अपनी भक्ति को प्रकट करते हैं। वाम मार्ग के संप्रदायों में यह शाखा महत्वपूर्ण है।
  4. सिख शाखा: सिख धर्म की शाखा, जिसमें गुरु नानक देव और उनके उत्तराधिकारी गुरुओं के उपदेशों और भक्ति का महत्वपूर्ण स्थान है।
  5. नाथ पंथ: इस शाखा के साधक नाथ सम्प्रदाय के अनुयाय होते हैं, जो आध्यात्मिक उन्नति की ओर जाते हैं।
  6. कबीरपंथ: संत कबीर के विचारों और भजनों पर आधारित इस शाखा के साधक भक्ति में विशेष रूप से रुचि रखते हैं।

ये थे कुछ प्रमुख भक्तिकाल की शाखाएँ, जो विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के भक्तों और संतों द्वारा प्रकट की गई थीं। इन शाखाओं में प्रत्येक की अपनी विशेषता और भक्ति के अद्वितीय रूप होते हैं।

भक्तिकाल की प्रमुख रचनाएं
भक्तिकाल की प्रमुख रचनाएं
भक्तिकाल की प्रमुख रचनाएं

भक्तिकाल के दौरान कई प्रमुख रचनाएं हुईं जो धार्मिक और आत्मिकता के प्रति अपनी अद्वितीयता के लिए प्रसिद्ध हैं। यहाँ उनमें से कुछ प्रमुख रचनाएं हैं:

  1. रामचरितमानस: गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित “रामचरितमानस” हिन्दी साहित्य की एक महत्वपूर्ण रचना है। इसमें रामायण की कथा को आध्यात्मिक और धार्मिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया है।
  2. सुरसागर: सूरदास की महत्वपूर्ण रचना “सुरसागर” है, जो कृष्ण भक्ति पर आधारित है। उनके दोहे और पद इसमें समाहित हैं और इनमें भगवान के प्रति उनकी अद्वितीय प्रेम भावना प्रकट होती है।
  3. ग्रंथावली: संत गुरु गोविंद सिंह की “ग्रंथावली” उनकी रचनाएं समाहित हैं, जो सिख धर्म के सिद्धांतों पर आधारित हैं। इनमें भगवान के प्रति उनकी भक्ति और धर्मिक सिखावट प्रमुख हैं।
  4. अभंगानि: संत नामदेव की अभंगानि उनके धार्मिक भक्ति साहित्य के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। इनमें भगवान विठोबा की महिमा और आत्मा के प्रति उनकी दृढ़ भक्ति प्रकट होती है।
  5. दासबोध: संत रामदास की रचना “दासबोध” मराठी साहित्य के एक महत्वपूर्ण काव्य के रूप में मानी जाती है। इसमें धार्मिक शिक्षा और आत्मा के मार्ग पर प्रेरणा दी गई है।
  6. पदावली: संत मीराबाई की “पदावली” उनके प्रेम और भगवान कृष्ण के प्रति उनकी अद्वितीय भक्ति भरी रचनाएं समाहित करती है।
  7. अमृतानुभव: संत तुकाराम की “अमृतानुभव” उनकी भक्ति और आत्मा के प्रति उनके गहरे अनुभवों को प्रकट करती है।
  8. बिजक: संत नमस्याश्वर की रचना “बिजक” महाराष्ट्रीय संतवाणी का महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसमें आत्मा के मार्ग पर उनके विचार प्रस्तुत हैं।
रामचरितमानसगोस्वामी तुलसीदास
सुरसागरसूरदास
ग्रंथावलीसंत गुरु गोविंद सिंह
अभंगानिसंत नामदेव
दासबोधसंत रामदास
पदावलीसंत मीराबाई
अमृतानुभव संत तुकाराम
बिजकसंत नमस्याश्वर
तुकोबाच्या आभंगसंत तुकोबा
अत्मनाथसंत आत्मनाथ
रामदासचरितसंत रामदास
संत गोरबाच्या आभंगसंत गोरबा
संत ग्यानेश्वरसंत ग्यानेश्वर
तुकारामचरिततुकाराम
पांडुरंगाष्टक संत नमदेव
संत सूरमासंत सूरमा
वारांसी देशीसंत नामदेव
दीनकृपालमीरांबाई
ज्ञानेश्वरीसंत ज्ञानेश्वर
संत मुक्ताबाईसंत मुक्ताबाई
ये रचनाएं भक्तिकाल की महत्वपूर्ण काव्य-रचनाएं हैं जो आत्मा के प्रति भक्ति, धार्मिकता, और सामाजिक समरसता के मुद्दों पर विचार करती हैं।
भक्ति काल की प्रमुख धारा
भक्ति काल की प्रमुख धारा
भक्ति काल की प्रमुख धारा

भक्तिकाल की प्रमुख धारा धार्मिक भक्ति है, जिसमें व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को आत्मा के प्रति प्रेम और भगवान की भक्ति में समर्पित किया जाता है। यह धारा धार्मिकता के प्रति गहरे अनुराग, आत्मा की महत्वपूर्णता, और अन्याय, असहिष्णुता, और समाज में सामाजिक असमानता के खिलाफ खड़ा होने की ओर जाने के माध्यम से चरम पर्याप्ति करती है।

भक्ति काल के कवियों और संतों ने अपने काव्य, गीत, भजन, और संतवाणियों के माध्यम से धार्मिक उद्देश्यों को प्रकट किया। उन्होंने धर्म, आत्मा की महत्वपूर्णता, मानवता, समाज में समरसता, और आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर लोगों को प्रेरित किया।

भक्ति काल के कवियों ने भगवान के प्रति अपनी अद्वितीय भक्ति को प्रकट किया, और वे अपने काव्य में भगवान की महिमा, लीलाएं, और भक्ति रूपी प्रेम की चर्चा करते थे।

भक्तिकाल के प्रमुख सम्प्रदाय, प्रवर्तक, दर्शन, गुरु और शिष्य

भक्तिकाल की प्रमुख धारा में समाज में सामाजिक असमानता के खिलाफ आवाज उठाने का भी महत्वपूर्ण योगदान था। यह कवियों ने सामाजिक विवादों, जातिवाद, और जाति-अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने में मदद की।

इस धारा के अंतर्गत भारतीय साहित्य में विभिन्न भाषाओं में कई महान कवियों ने अपना योगदान दिया, और उनकी रचनाएं आज भी हमारे साहित्य और सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

हिन्दी साहित्य ओर भक्तिकाल की बुक
Drishti IAS UGC Hindi Sahitya [NTA/NET/JRF] Click Here
Hindi Bhasha Evam Sahitya Ka Vast. Itihas | Saraswati PandeyClick Here
Hindi Sahitya Ka Itihas In Hindi Click Here
Hindi Bhasha avam Sahitya Ka Vastunishth EtihasClick Here
Arthashastra Click Here
भक्ति काल के प्रकार

भक्ति काल के अनेक प्रकार थे, जो भारतीय साहित्य में विभिन्न धाराओं और धार्मिक सम्प्रदायों के अनुसार विकसित हुए थे। यहाँ कुछ प्रमुख भक्ति काल के प्रकार हैं:

  1. वैष्णव भक्ति: इसमें भगवान विष्णु और उनकी अवतारों, विशेषकर कृष्ण के प्रति भक्ति होती है। संत तुलसीदास, सूरदास, और मीराबाई के रचनाएँ इस प्रकार की भक्ति का प्रतिष्ठान हैं।
  2. शैव भक्ति: इसमें भगवान शिव के प्रति भक्ति होती है। संत तुकाराम की रचनाएँ शैव भक्ति के उदाहरण होती हैं।
  3. शाक्त भक्ति: इसमें देवी मां के प्रति भक्ति होती है, और यह वाम मार्ग के साधकों में विकसित हुआ।
  4. सिख भक्ति: सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव और उनके उत्तराधिकारी गुरुओं के प्रति भक्ति सिख धर्म के अहम् अंश है।
  5. नाथ पंथ की भक्ति: नाथ सम्प्रदाय के संतों के द्वारा प्रस्तुत भक्ति की एक विशेष धारा है।
  6. कबीरपंथी भक्ति: संत कबीर के विचारों और भजनों पर आधारित भक्ति संप्रदाय।
  7. नामसिद्धांत: भगवान के नाम की जाप के माध्यम से उनके प्रति भक्ति। संत नामदेव और संत तुकाराम की रचनाएँ इस धारा के प्रमुख उदाहरण हैं।

ये केवल कुछ उदाहरण हैं, और भारतीय साहित्य में और भी कई प्रकार की भक्ति की धाराएं विकसित हुई हैं, जिनमें हर एक धारा में अपनी अनूठी भक्ति परंपरा है।

Drishti IAS UGC Hindi Sahitya [NTA/NET/JRF] Click Here
Hindi Bhasha Evam Sahitya Ka Vast. Itihas | Saraswati PandeyClick Here
Hindi Sahitya Ka Itihas In Hindi Click Here
Hindi Bhasha avam Sahitya Ka Vastunishth EtihasClick Here
Arthashastra Click Here

भक्तिकाल का दूसरा नाम क्या है?

भक्ति काल का दूसरा नाम “संत काव्य” है। यह काल संतों द्वारा रचित काव्य और भजनों की महत्वपूर्ण प्रावृत्ति का प्रतिष्ठान है, जो धार्मिक भावनाओं, आत्मा के प्रति प्रेम, और समाज में सामाजिक समरसता को प्रकट करते हैं। इस काल में संतों ने भगवान की महिमा, उनकी लीलाएं, और आत्मा की महत्वपूर्णता पर विचार किए और इसे अपने काव्यों में प्रस्तुत किया। भक्ति काल के दौरान संतों ने धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक न्याय, और व्यक्तिगत आत्मा के प्रति अनुराग की प्रेरणा दी।

भक्तिकाल का विद्वानों के द्वारा नाम?

भक्तिकाल को विद्वानों और साहित्यशास्त्रियों ने “भक्तियुग” भी कहा है। इस प्रायोगिक दृष्टिकोण के साथ वे इस युग की विशेषताओं का परिचय देते हैं, जैसे कि भक्ति-प्रेम, धार्मिक भावनाओं की महत्वपूर्णता, समाज में एकता और सामाजिक समरसता की प्रमुखता, आत्मा के प्रति प्रेम, और भगवान के प्रति अद्वितीय भक्ति का प्रकटन।
विशेष रूप से भारतीय साहित्यशास्त्र में, भक्तिकाल का यह नाम उसकी महत्वपूर्णता को दर्शाता है, जिसमें साहित्यिक और सामाजिक दृष्टिकोण से धर्मिक भक्ति के माध्यम से समृद्धि का विवेक किया जाता है।

Leave a Comment